
बिहार की राजनीति हमेशा से ही दिलचस्प रही है। जातीय समीकरण, गठबंधन की राजनीति और नेताओं का पल-पल बदलता रुख—यही यहां के चुनावों की सबसे बड़ी पहचान रही है। लेकिन एक खास तथ्य यह भी है कि पिछले 68 सालों में बीजेपी (कमल) को यहां महज दो बार ही जीत का स्वाद चखने का मौका मिला है।
कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का दबदबा
आज़ादी के बाद लंबे समय तक बिहार कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। फिर 1990 के दशक के बाद जब लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी ने सत्ता संभाली तो यहां सामाजिक न्याय और मंडल राजनीति की लहर चली। इस दौर में बीजेपी और अन्य दलों के लिए जमीन मजबूत करना बेहद कठिन रहा।
बीजेपी की दो बार की सफल
बीजेपी ने इस क्षेत्र में अब तक सिर्फ दो बार ही जीत दर्ज की है।
पहली बार: जब राम मंदिर आंदोलन की लहर पूरे उत्तर भारत में चल रही थी, तब बीजेपी को यहां जीत का मौका मिला।
दूसरी बार: नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और एनडीए गठबंधन की मजबूती के सहारे पार्टी ने सफलता पाई।
लेकिन इसके अलावा, हर बार समीकरण बीजेपी के खिलाफ ही भारी पड़ते रहे हैं।
क्यों मुश्किल होती है बीजेपी की राह?
जातीय समीकरण: यहां की राजनीति जाति आधारित समीकरणों पर टिकी रहती है, जो अक्सर बीजेपी के खिलाफ जाते हैं।
क्षेत्रीय नेताओं की पकड़: लालू प्रसाद यादव (राजद), नीतीश कुमार (जदयू) और कांग्रेस के स्थानीय नेता मजबूत आधार रखते हैं।
गठबंधन की मजबूती: महागठबंधन के रूप में जब विपक्ष एकजुट होता है, तो बीजेपी के लिए हालात और चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं।
इस बार का चुनाव क्यों खास?
2025 के विधानसभा चुनाव और लोकसभा उपचुनावों को लेकर यहां का माहौल काफी गर्म है।
नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की योजनाओं का असर जमीन पर कितना दिखेगा, यह अहम रहेगा।
एनडीए की एकजुटता बनाम महागठबंधन की रणनीति मुकाबले को रोमांचक बनाएगी।
युवा मतदाता और पहली बार वोट डालने वाले किस ओर झुकते हैं, यह भी खेल पलट सकता है।
टाइट फाइट के आसार
इतिहास गवाह है कि यहां बीजेपी को हमेशा चुनौती का सामना करना पड़ा है। इस बार भी मुकाबला टाइट फाइट होने की संभावना है। महागठबंधन अपनी सामाजिक समीकरणों पर दांव लगाएगा, वहीं बीजेपी “विकास, केंद्र की योजनाओं और मोदी फैक्टर” पर भरोसा करेगी। By Shruti Kumari